उपन्यास "राग दरबारी" : श्रीलाल शुक्ल

प्रस्तावना

'राग दरबारी' का लेखन 1964 के अन्त में शुरू हुआ और अपने अन्तिम रूप में 1967 में समाप्त हुआ। 1968 में इसका प्रकाशन हुआ और 1969 में इस पर श्रीलाल शुक्ल जी को साहित्य अकादमी का पुरस्कार मिला। तब से अब तक इसके दर्जनों संस्करण और पुनर्मुद्रण हो चुके हैं। 1969 में ही एक सुविज्ञात समीक्षक ने अपनी बहुत लम्बी समीक्षा इस वाक्य पर समाप्त की : ‘अपठित रह जाना ही इसकी नियति है।’ दूसरी ओर इसकी अधिकांश समीक्षाएँ अत्यन्त उत्साहवर्धक सिद्ध हो रही थीं। कुल मिलाकर, हिन्दी समीक्षा के बारे में यह तो स्पष्ट हो ही गया कि एक ही कृति पर कितने परस्पर-विपरीत विचार एक साथ फल-फूल सकते हैं।

इसमें कुल पैंतीस (35) अध्याय है।

अध्याय 1

शहर का किनारा। उसे छोड़ते ही भारतीय देहात का महासागर शुरू हो जाता था। वहीं एक ट्रक खड़ा था। उसे देखते ही यकीन हो जाता था, इसका जन्म केवल सड़कों के साथ बलात्कार करने के लिए हुआ है। जैसे कि सत्य के होते हैं, इस ट्रक के भी कई पहलू थे। पुलिसवाले उसे एक ओर से देखकर कह सकते थे कि वह सड़क के बीच में खड़ा है, दूसरी ओर से देखकर ड्राइवर कह सकता था कि वह सड़क के किनारे पर है। चालू फैशन के हिसाब से ड्राइवर ने ट्रक का दाहिना दरवाज़ा खोलकर डैने की तरह फैला दिया था। इससे ट्रक की खूबसूरती बढ़ गई थी, साथ ही यह खतरा मिट गया था कि उसके वहाँ होते हुए कोई दूसरी सवारी भी सड़क के ऊपर से निकल सकती है।

सड़क के एक ओर पेट्रोल-स्टेशन था; दूसरी ओर छप्परों, लकड़ी और टीन के सड़े टुकड़े और स्थानीय क्षमता के अनुसार निकलनेवाले कबाड़ की मदद से खड़ी की हुई दुकाने थीं। पहली निगाह में ही मालूम हो जाता था कि दुकानों की गिनती नहीं हो सकती। प्रायः सभी में जनता का एक मनपसन्द पेय मिलता था जिसे वहाँ गर्द, चीकट, चाय की कई बार इस्तेमाल की हुई पत्ती और खौलते पानी आदि के सहारे बनाया जाता था। उनमें मिठाइयाँ भी थीं जो दिन-रात आँधी-पानी और मक्खी-मच्छरों के हमलों का बहादुरी से मुकाबला करती थीं। वे हमारे देसी कारीगरों के हस्त कौशल और उनकी वैज्ञानिक दक्षता का सबूत देती थीं। वे बताती थीं कि हमें एक अच्छा रेजर-ब्लेड बनाने का नुस्खा भले ही न मालूम हो, पर कूड़े को स्वादिष्ट खाद्य पदार्थों में बदल देने की तरकीब सारी दुनिया में अकेले हमीं को आती है।

ट्रक के ड्राइवर और क्लीनर एक दुकान के सामने खड़े चाय पी रहे थे। रंगनाथ ने दूर से इस ट्रक को देखा और देखते ही उसके पैर तेज़ी से चलने लगे।
आज रेलवे ने उसे धोखा दिया था। स्थानीय पैसेंजर्स ट्रेन को रोज की तरह दो घण्टा लेट समझकर वह घर से चला था, पर वह सिर्फ डेढ़ घण्टा लेट होकर चल दी थी। शिकायती किताब के कथा-साहित्य में अपना योगदान देकर और रेलवे अधिकारियों की निगाह में हास्यास्पद बनकर वह स्टेशन से बाहर निकल आया था। रास्ते में चलते हुए उसने ट्रक देखा और उसकी बाछें-वे जिस्म में जहाँ कहीं भी होतीं हों—खिल गईं।

जब वह ट्रक के पास पहुँचा, क्लीनर और ड्राइवर चाय की आखिरी चुस्कियाँ ले रहे थे। इधर-उधर ताक कर, अपनी खिली हुई बाछों को छिपाते हुए, उसने ड्राइवर से निर्विकार ढंग से पूछा, ‘‘क्यों ड्राइवर साहब, यह ट्रक क्या शिवपालगंज की ओर जाएगा ?’’
ड्राइवर के पीने को चाय थी और देखने की दुकानदारिन थी। उसने लापरवाही से जवाब दिया, ‘‘जायगा’’
‘‘हमें भी ले चलिएगा अपने साथ ? पन्द्रहवें मील पर उतर पड़ेंगे। शिवपालगंज तक जाना है’’
ड्राइवर ने दुकानदारिन की सारी संभावनाएँ एक साथ देख डालीं और अपनी निगाह रंगनाथ की ओर घुमायी। अहा ! क्या हुलिया था !
नवकंजलोचन कंजमुख करकंज पदकंजारुणम् ! पैर खद्दर के पैजामे में, सिर खद्दर की टोपी में, बदन खद्दर के कुर्ते में। कन्धें से लटकता हुआ भूदानी झोला। हाथ में चमड़े की अटैची। ड्राइवर ने उसे देखा और देखता ही रह गया। फिर कुछ सोचकर बोला, ‘‘बैठ जाइए शिरिमानजी, अभी चलते हैं।’’

घरघराकर ट्रक चला। शहर की टेढ़ी-मेढ़ी लपेट से फुरसत पाकर कुछ दूर आगे साफ़ और वीरान सड़क आ गई। यहाँ ड्राइवर ने पहली बार टॉप गियर का प्रयोग किया पर वह फिसल-फिसल कर न्यूटल में गिरने लगा। हर सौ गज़ के बाद गियर फिसल जाता और एक्सिलेटर दबे होने से ट्रक की घरघराहट बढ़ जाती, रफ्तार धीमी हो जाती रंगनाथ ने कहा, ‘‘ड्राइवर साहब, तुम्हारा गियर तो बिलकुल अपने देश की हुकूमत जैसा है।’’

ड्राइवर ने मुस्करा कर वह प्रशंसा-पत्र ग्रहण किया। रंगनाथ ने अपनी बात साफ़ करने की कोशिश की। कहा, ‘‘उसे चाहे जितनी बार टॉप गियर में डालो, दो गज़ चलते ही फिसल जाती है और लौटकर अपने खाँचे में आ जाती है।’’
ड्राइवर हँसा। बोला, ‘‘ऊँची बात कह दी शिरिमानजी ने।’’
इस बार उसने गियर को टॉप में डालकर अपनी टाँग लगभग नब्बे अंश के कोण पर उठायी और गियर को जाँघ के नीचे दबा लिया। रंगनाथ ने कहना चाहा कि हुकूमत को चलाने का भी यही नुस्खा है, पर यह सोचकर कि बात ज़रा और ऊँची हो जाएगी, वह चुप बैठा रहा।

उधर ड्राइवर ने अपनी जाँघ गियर से हटाकर यथास्थान वापस पहुँचा दी थी। गियर पर उसने एक लम्बी लकड़ी लगा दी और उसका एक सिरा पेनल के नीचे ठोंक दिया। ट्रक ते़ज़ी से चलता रहा। उसे देखते ही साइकल सवार, पैदल, इक्के-सभी सवारियाँ कई फर्लांग पहले ही से खौफ के मारे सड़क से उतरकर नीचे चली जातीं। जिस तेज़ी से वे भाग रही थीं, उससे लगता था कि उनकी निगाह में वह ट्रक नहीं है; वह आग की लहर है, बंगाल की खाड़ी से उठा हुआ तूफान है, जनता पर छोड़ा हुआ कोई बदकलाम अहलकार है, पिंडारियों का गिरोह है। रंगनाथ ने सोचा, उसे पहले ही ऐलान करा देना था कि अपने-अपने जानवर और बच्चे घरों में बन्द कर लो, शहर से अभी-अभी एक ट्रक छूटा है।

तब तक ड्राइवर ने पूछा, ‘‘कहिए शिरिमानजी ! क्या हालचाल हैं ? बहुत दिन बाद देहात की ओर जा रहे हैं !’’
रंगनाथ ने शिष्टाचार की इस कोशिश को मुस्कराकर बढ़ावा दिया। ड्राइवर ने कहा, ‘‘शिरिमानजी, आजकल क्या कर रहे हैं ?’’
‘‘घास खोद रहा हूँ।’’

ड्राइवर हँसा। दुर्घटनावश एक दस साल का नंग-धड़ंग लड़का ट्रक से बिलकुल ही बच गया। बचकर वह एक पुलिया के सहारे छिपकली-सा गिर पड़ा। ड्राइवर इससे प्रभावित नहीं हुआ। एक्सिलेटर दबाकर हँसते-हँसते बोला, ‘‘क्या बात कही है ! ज़रा खुलासा समझाइए।’’
‘‘कहा तो, घास खोद रहा हूँ। इसी को अंग्रेजी में रिसर्च कहते हैं। परसाल एम.ए. किया था। इस साल से रिसर्च शुरू की है।’’ ड्राइवर जैसे अलिफ-लैला की कहानियाँ सुन रहा हो, मुस्कराता हुआ बोला, ‘‘और शिरिमानजी, शिवपालगंज क्या करने जा रहा हैं ?’’

‘‘वहाँ मेरे मामा रहते हैं। बीमार पड़ गया था। कुछ दिन देहात में जाकर तन्दुरस्ती बनाऊँगा।’’
इस बार ड्राइवर काफ़ी देर तक हँसता रहा। बोला, ‘‘क्या बात बनायी है शिरिमानजी ने !’’
रंगनाथ ने उसकी ओर सन्देह से देखते हुए पूछा, ‘‘जी ! इसमें बात बनाने की क्या बात ?’’
वह इस मासूमियत पर लोट-पोट हो गया। पहले ही की तरह हँसते हुए बोला, ‘‘क्या कहने हैं ! अच्छा जी, छोड़िए बात को।
बताइए, मित्तल साहब के क्या हाल हैं ? क्या हुआ उस हवालाती के खूनवाले मामले का ?’’
रंगनाथ का खून सूख गया। भर्राए गले से बोला, ‘‘अजी, मैं क्या जानूँ वह मित्तल कौन है।’’
ड्राइवर की हँसी में ब्रेक लग गया। ट्रक की रफ्तार भी कुछ कम पड़ गई। उसने रंगनाथ को एक बार गौर से देखकर पूछा, ‘‘आप मित्तल साहब को नहीं जानते ?’’
‘‘नहीं।’’
‘‘जैन साहब को ?’’
‘‘नहीं।’’
ड्राइवर ने खिड़की के बाहर थूक दिया और साफ़ आवाज़ में सवाल किया, ‘‘आप सी.आई.डी. में काम नहीं करते ?’’
रंगनाथ ने झुँझलाकर कहा, ‘‘सी.आई.डी. ? यह किस चिड़िया का नाम है ?’
ड्राइवर से जोर की सांस छोड़ी और सामने सड़क की दशा का निरीक्षण करने लगा।

कूछ बैलगाड़ियां जा रही थीं। जब कहीं और जहां भी कहीं मौका मिले, वहां टांगे फैला देनी चाहिये, इस लोकप्रिय सिद्धांत के अनुसार गाड़ीवान बैलगाड़ियों पर लेटे हुये थे और मुंह ढांपकर सो रहे थे। बैल अपनी काबिलियत से नहीं, बल्कि अभ्यास के सहारे चुपचाप सड़क पर गाड़ी घसीटे लिये जा रहे थे। यह भी जनता और जनार्दन वाला मजनून था, पर रंगनाथ की हिम्मत कुछ कहने की नहीं हुयी। वह सी.आई.डी. वाली बात से उखड़ गया था। ड्राइवर ने पहले रबड़वाला हार्न बजाया, फिर एक ऐसा हार्न बजाया जो संगीत के आरोह-अवरोह के बावजूद बहुत डरावना था, पर गाड़ियां अपनी राह चलती रहीं। ड्राइवर काफ़ी रफ्तार से ट्रक चला रहा था, और बैलगाड़ियों के ऊपर से निकाल ले जाने वाला था; पर गाड़ियों के पास पहुंचते-पहुंचते उसे शायद अचानक मालूम हो गया कि वह ट्रक चला रहा है, हेलीकाप्टर नहीं। उसने एकदम से ब्रेक लगाया, पेनल से लगी हुई लकड़ी नीचे गिरा दी, गियर बदला और बैलगाड़ियों को लगभग छूता हुआ उनसे आगे निकल गया। आगे जाकर उसने घृणापूर्वक रंगनाथ से कहा,"सी.आई.डी. में नहीं हो तो तुमने यह खद्दर क्यों डांट रखी है जी?"

रंगनाथ इन हमलों से लड़खड़ा गया था। पर उसने इस बात को मामूली जांच-पड़ताल का सवाल मानकर सरलता से जवाब दिया,"खद्दर तो आजकल सभी पहनते हैं।"
"अजी कोई तुक का आदमी तो पहनता नहीं।" कहकर उसने दुबारा खिड़की के बाहर थूका और गियर को टॉप में डाल दिया।
रंगनाथ का पर्सनालिटी कल्ट समाप्त हो गया। थोड़ी देर वह चुपचाप बैठा रहा। बाद में मुंह से सीटी बजाने लगा। ड्राइवर ने उसे कुहनी से हिलाकर कहा,"देखो जी, चुपचाप बैठो, यह कीर्तन की जगह नहीं है।"
रंगनाथ चुप हो गया। तभी ड्राइवर ने झुंझलाकर कहा,"यह गियर बार-बार फिसलकर न्यूट्रल ही में घुसता है। देख क्या रहे हो? ज़रा पकड़े रहो जी। थोड़ी देर में उसने दुबारा झुंझलाकर कहा,"ऐसे नहीं इस तरह! दबाकर ठीक से पकड़े रहो।

ट्रक के पीछे काफ़ी देर से हार्न बजता आ रहा था। रंगनाथ उसे सुनता रहा था और ड्राइवर उसे अनसुना करता रहा था। कुछ देर बाद पीछे से क्लीनर ने लटककर ड्राइवर की कनपटी के पास खिड़की पर खट-खट करना शुरू कर दिया। ट्रकवालों की भाषा में इस कार्रवाई का निश्चित ही कोई खौफ़नाक मतलब होगा, क्योंकि उसी वक्त ड्राइवर ने रफ़्तार कम कर दी और ट्रक को सड़क की बायीं पटरी पर कर लिया।

हार्न की आवाज़ एक ऐसे स्टेशन-वैगन से आ रही थी जो आजकल विदेशों के आशीर्वाद से सैकड़ों की संख्या में यहां देश की प्रगति के लिये इस्तेमाल होते हैं और हर सड़क पर हर वक्त देखे जा सकते हैं। स्टेशन-वैगन दायें से निकलकर आगे धीमा पड़ गया और उससे बाहर निकले हुये एक खाकी हाथ ने ट्रक को रुकने का इशारा दिया। दोनों गाड़ियां रुक गयीं।

स्टेशन-वैगन से एक अफसरनुमा चपरासी और एक चपरासीनुमा अफसर उतरे। खाकी कपड़े पहने हुये दो सिपाही भी उतरे। उनके उतरते ही पिंडारियों-जैसी लूट खसोट शुरू हो गयी। किसी ने ड्राइवर का ड्राइविंग लाइसेंस छीना, किसी ने रजिस्ट्रेशन-कार्ड; कोई बैक्व्यू मिरर खटखटाने लगा, कोई ट्रक का हार्न बजाने लगा। कोई ब्रेक देखने लगा। उन्होंने फुटबोर्ड हिलाकर देखा, बत्तियां जलायीं, पीछे बजनेवाली घंटी टुनटुनायी। उन्होंने जो कुछ भी देखा, वह खराब निकला; जिस चीज को भी छुआ, उसी में गड़बड़ी आ गयी। इस तरह उन चार आदमियों ने चार मिनट में लगभग चालिस दोष निकाले और फिर एक पेड़ के नीचे खड़े होकर इस प्रश्न पर बहस करनी शुरू कर दी कि दुश्मन के साथ कैसा सुलूक किया जाये।

रंगनाथ की समझ में कुल यही आया कि दुनिया में कर्मवाद के सिद्धान्त,'पोयटिक जस्टिस' आदि की कहानियां सच्ची हैं; ट्रक की चेकिंग हो रही है और ड्राइवर से भगवान उसके अपमान का बदला ले रहा है। वह अपनी जगह बैठा रहा। पर इसी बीच ड्राइवर ने मौका निकालकर कहा," शिरिमानजी, ज़रा नीचे उतर आयें। वहां गियर पकड़कर बैठने की अब क्या जरूरत है?"

रंगनाथ एक दूसरे पेड़ के नीचे जाकर खड़ा हो गया। उधर ड्राइवर और चेकिंग जत्थे में ट्रक के एक-एक पुर्जे को लेकर बहस चल रही थी। देखते-देखते बहस पुर्जों से फिसलकर देश की सामान्य दशा और आर्थिक दुरवस्था पर आ गयी और थोड़ी ही देर में उपस्थित लोगों की छोटी-छोटी उपसमितियां बन गयीं। वे अलग-अलग पेड़ों के नीचे एक-एक विषय पर विशेषज्ञ की हैसियत से विचार करने लगीं। काफ़ी बहस हो जाने के बाद एक पेड़ के नीचे खुला अधिवेशन जैसा होने लगा और कुछ देर में जान पड़ा, गोष्ठी खत्म होने वाली है।
आखिर में रंगनाथ को अफ़सर की मिमियाती हुयी आवाज़ सुनायी पड़ी, "क्यों मियां अशफ़ाक, क्या राय है? माफ़ किया जाये?"
चपरासी ने कहा, "और कर ही क्या सकते हैं हुजूर? कहां तक चालान कीजियेगा। एकाध गड़बड़ी हो तो चालान भी करें। एक सिपाही ने कहा, " चार्जशीट भरते-भरते सुबह हो जायेगी।"
इधर-उधर की बातों के बाद अफ़सर ने कहा, " अच्छा जाओ जी बंटासिंह, तुम्हें माफ़ किया।"
ड्राइवर ने खुशामद के साथ कहा, "ऐसा काम शिरिमानजी ही कर सकते हैं।"
अफ़सर काफ़ी देर से दूसरे पेड़ के नीचे खड़े हुये रंगनाथ की ओर देख रहा था। सिगरेट सुलगाता हुआ वह उसकी ऒर आया । पास आकर पूछा, "आप भी इसी ट्रक पर जा रहे हैं?"
"जी हां।"
"आपसे इसने कुछ किराया तो नहीं लिया है?"
"जी, नहीं।"
अफ़सर बोला, "वह तो मैं आपकी पोशाक ही देखकर समझ गया था, पर जांच करना मेरा फ़र्ज था।"
रंगनाथ ने उसे चिढा़ने के लिये कहा, "यह असली खादी थोड़े ही है। यह मिल की खादी है।"
उसने इज्जत के साथ कहा, "अरे साहब, खादी तो खादी! उसमें असली-नकली का क्या फर्क?"
अफ़सर के चले जाने के बाद ड्राइवर और चपरासी रंगनाथ के पास आये। ड्राइवर ने कहा, "ज़रा दो रुपये तो निकालना जी।"
उसने मुंह फेरकर कड़ाई से कहा, "क्या मतलब है? मैं रुपया क्यों दूं?"
ड्रायवर ने चपरासी का हाथ पकड़कर कहा, "आइये शिरिमानजी, मेरे साथ आइये। जाते-जाते वह रंगनाथ से कहने लगा। तुम्हारी ही वजह से मेरी चेकिंग हुई। और तुम्ही मुसीबत में मुझमे इस तरह से बात करते हो? तुम्हारी यही तालीम है?"
वर्तमान शिक्षा-पद्धति रास्ते में पड़ी हुयी कुतिया है, जिसे कोई भी लात मार सकता है।

ड्राइवर भी उस पर रास्ता चलते-चलते एक जुम्ला मारकर चपरासी के साथ ट्रक की ऒर चल दिया। रंगनाथ ने देखा, शाम घिर रही है, उसका अटैची ट्रक में रखा है, शिवपालगंज अभी पांच मील दूर है और उसे लोगों की सद्भावना की जरूरत है। वह धीरे-धीरे ट्रक की ओर आया। उधर स्टेशन वैगन का ड्राइवर हार्न बजा-बजाकर चपरासी को वापस बुला रहा था। रंगनाथ ने दो रुपये ड्राइवर को देने चाहे। उसने कहा, " अब दे ही रहे हो तो अर्दली साहब को दो। मैं तुम्हारे रुपयों का क्या करूंगा?"

कहते-कहते उसकी आवाज में सन्यासियों की खनक आ गयी जो पैसा हाथ से नहीं छूते, सिर्फ दूसरों को यह बताते हैं कि तुम्हारा पैसा हाथ का मैल है। चपरासी रुपयों को जेब में रखकर, बीड़ी का आखिरी कश खींचकर, उसका अधजला टुकड़ा लगभग रंगनाथ के पैजामे पर फेंककर स्टेशन-वैगन की ओर चला गया। उसके रवाना होने पर ड्राइवर ने भी ट्रक चलाया और पहले की तरह गियर को 'टॉप' में लेकर रंगनाथ को पकड़ा दिया।फिर अचानक,बिना किसी वजह के, वह मुंह को गोल-गोल बनाकर सीटी पर सिनेमा की एक धुन निकालने लगा। रंगनाथ चुपचाप सुनता रहा।

थोड़ी देर में ही धुंधलके में सड़क की पटरी पर दोनों ओर कुछ गठरियां-सी रखी हुई नजर आयीं। ये औरतें थीं, जो कतार बांधकर बैठी हुयी थीं। वे इत्मीनान से बातचीत करती हुयी वायु सेवन कर रहीं थीं और लगे हाथ मल-मूत्र विसर्जन भी। सड़क के नीचे घूरे पटे पड़े थे और उनकी बदबू के बोझ से शाम की हवा किसी गर्भवती की तरह अलसायी हुयी-सी चल रही थी। कुछ दूरी पर कुत्तों के भौंकने की आवजें हुईं। आंखों के आगे धुएं के जाले उड़ते हुये नज़र आये। इससे इन्कार नहीं हो सकता था कि वे किसी गांव के पास आ गये थे। यही शिवपालगंज था।